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IIT Baba Par Hamla Uchit Hai?

 "बहस के नाम पर बवाल: क्या असहमति का जवाब अब हिंसा से मिलेगा?" बीते दिनों News Nation के लाइव शो में IIT Baba के साथ हुई मारपीट ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या अब असहमति को बर्दाश्त करना समाज के लिए मुश्किल हो गया है? क्या बहस अब तर्कों से नहीं बल्कि थप्पड़ों और घूंसों से जीती जाएगी? यह घटना सिर्फ एक व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। क्या बहस अब हिंसा में बदल रही है? लोकतंत्र में असहमति कोई नई बात नहीं है। भारत का संविधान हमें विचारों की स्वतंत्रता देता है, लेकिन जब विचारधारा के टकराव को हिंसा का सहारा लेकर दबाने की कोशिश की जाती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। आजकल टीवी डिबेट्स और सोशल मीडिया में जिस तरह की उत्तेजना और आक्रामकता बढ़ रही है, वह साफ दिखाती है कि असहमति को सहने की शक्ति कमजोर पड़ रही है। डिबेट्स जानकारी और तर्क-वितर्क का माध्यम होने के बजाय व्यक्तिगत हमले और नफरत का अड्डा बनती जा रही हैं। मीडिया डिबेट्स या रेसलिंग का अखाड़ा? पहले टीवी डिबेट्स में ज्ञानवर्धक चर्चाएं होती थीं, लेकिन अब कई बा...

धर्म और राजनीति: एक नवीन दृष्टिकोण

 धर्म और राजनीति का संबंध ऐतिहासिक रूप से गहरा और जटिल रहा है। यह संबंध कभी समाज के नैतिक आधार के रूप में उभरा, तो कभी सत्ता के लिए विभाजनकारी उपकरण बना। 21वीं सदी में, वैश्वीकरण, डिजिटल मीडिया और उभरती सामाजिक चेतना के दौर में इस संबंध को नए दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है।

वर्तमान राजनीति में धर्म की भूमिका बहुआयामी हो गई है। एक ओर, यह सामाजिक नैतिकता, सेवा और सद्भाव का आधार बन सकता है; दूसरी ओर, इसका दुरुपयोग ध्रुवीकरण और विभाजन को बढ़ावा दे सकता है। इस संपादकीय लेख में हम वर्तमान वैश्विक और भारतीय संदर्भ में धर्म और राजनीति के संबंधों की पड़ताल करेंगे और एक संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे।

1. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: धर्म और राजनीति का संबंध

प्राचीन काल में धर्म और राजनीति

प्राचीन भारत, ग्रीस, रोम, चीन और इस्लामिक सभ्यताओं में धर्म और राजनीति एक-दूसरे के पूरक थे। भारत में राजा को धर्म का संरक्षक माना जाता था, और राज्य संचालन धर्मशास्त्रों पर आधारित था।

रामराज्य और धर्मनिष्ठ शासन: महर्षि वाल्मीकि के रामायण में रामराज्य की अवधारणा दी गई, जहाँ धर्म, न्याय और नैतिकता शासन के केंद्र में थे।

महाभारत और राजधर्म: श्रीकृष्ण ने धर्म को नीति और राजनीति का आधार माना।

अर्थशास्त्र और व्यवहारिक राजनीति: कौटिल्य ने धर्म और राजनीति के व्यावहारिक संबंधों पर बल दिया और राजा को "मातापिता" की तरह प्रजा का पालन करने वाला बताया।

मध्यकाल और धर्म का प्रभाव

मध्यकाल में चर्च, इस्लामिक खिलाफत, हिंदू राजतंत्रों और बौद्ध साम्राज्यों में धर्म सत्ता का एक प्रमुख स्तंभ बना।

यूरोप में चर्च और राज्य का संघर्ष लड़ा गया।

इस्लामिक खिलाफत में शरिया कानून का शासन में प्रभाव रहा।

भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल शासकों के समय धार्मिक सहिष्णुता और असहिष्णुता, दोनों देखने को मिलीं।

आधुनिक युग और धर्मनिरपेक्षता का उदय

फ्रांसीसी क्रांति (1789) और अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन (1776) ने धर्म और राजनीति को अलग करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त किया। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में "धर्मनिरपेक्षता" को एक मूल्य के रूप में अपनाया गया, जहाँ राज्य किसी विशेष धर्म का पक्षधर नहीं होगा।

2. वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में धर्म और राजनीति

(i) पश्चिमी लोकतंत्र और धर्म

अमेरिका में चर्च और राज्य अलग हैं, लेकिन ईसाई मूल्य राजनीति को प्रभावित करते हैं।

फ्रांस में "कट्टर धर्मनिरपेक्षता" (Laïcité) है, जहाँ सार्वजनिक जीवन में धर्म को पूरी तरह से अलग रखा जाता है।

रूस में चर्च और सरकार का घनिष्ठ संबंध है, जहाँ ऑर्थोडॉक्स चर्च राजनीतिक निर्णयों को प्रभावित करता है।

(ii) इस्लामिक राष्ट्रों में धर्म का प्रभाव

ईरान, सऊदी अरब और पाकिस्तान जैसे देशों में धर्म ही शासन का आधार बना हुआ है।

तुर्की में धर्मनिरपेक्षता को फिर से चुनौती दी जा रही है।

(iii) एशियाई संदर्भ

चीन में धर्म पर सख्त नियंत्रण है, जबकि जापान और कोरिया में धर्म का सामाजिक प्रभाव अधिक है, परंतु राजनीति में सीमित है।

भारत में धर्म और राजनीति का संबंध सबसे जटिल और विविधतापूर्ण है।

3. भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका

(i) भारत की धर्मनिरपेक्षता: संविधान की दृष्टि

भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपनाता है, जिसका अर्थ यह नहीं कि राज्य धर्म-विरोधी होगा, बल्कि वह सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहेगा।

अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हैं।

राज्य को किसी विशेष धर्म का समर्थन नहीं करना चाहिए।

राजनीतिक दलों को धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए।

(ii) स्वतंत्रता संग्राम और गांधीजी का दृष्टिकोण

महात्मा गांधी ने "सर्वधर्म समभाव" की अवधारणा दी और राजनीति को नैतिकता से जोड़ने की बात की।

वे धर्म का उपयोग सामाजिक सुधार के लिए करना चाहते थे, न कि राजनीतिक लाभ के लिए।

(iii) वर्तमान राजनीति में धर्म का प्रयोग

1. वोट बैंक की राजनीति

कुछ राजनीतिक दल विशेष धार्मिक समूहों को आकर्षित करने के लिए नीतियाँ बनाते हैं।

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास किया जाता है।

2. सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण

धार्मिक भावनाओं को भड़काकर राजनीतिक लाभ उठाने की प्रवृत्ति बढ़ी है।

सोशल मीडिया के माध्यम से धर्म आधारित नफरत को बढ़ावा दिया जाता है।

3. धर्म आधारित कल्याणकारी योजनाएँ

कुछ राज्यों में तीर्थयात्रा सब्सिडी, धार्मिक स्थलों का विकास और धर्म-आधारित योजनाएँ लागू की गई हैं।

सवाल उठता है कि क्या यह धर्मनिरपेक्ष नीति के अनुरूप है?

4. धर्म और सामाजिक सुधार

राजनीति के माध्यम से धर्म सुधार के प्रयास किए गए, जैसे कि तीन तलाक कानून और मंदिरों में महिला प्रवेश की अनुमति।

धर्म और राजनीति के टकराव के कारण न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

4. धर्म और राजनीति के संबंधों पर नवीन दृष्टिकोण

आज के वैश्विक और भारतीय संदर्भ में धर्म और राजनीति के संबंधों को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता है।

(i) सकारात्मक दृष्टिकोण: धर्म के नैतिक मूल्यों का उपयोग

राजनीति में धर्म का स्थान सामाजिक नैतिकता के रूप में होना चाहिए, न कि सत्ता के हथियार के रूप में।

गांधीजी की तरह नैतिकता, सेवा और करुणा पर आधारित राजनीति की आवश्यकता है।

(ii) राज्य की भूमिका: तटस्थता बनाम हस्तक्षेप

राज्य को धर्म के मामलों में निष्पक्ष रहना चाहिए, लेकिन आवश्यक सुधार लागू करने चाहिए।

धार्मिक संगठनों को समाज में सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए, लेकिन सत्ता संघर्ष से दूर रहना चाहिए।

(iii) नागरिकों की भूमिका: लोकतांत्रिक जागरूकता

नागरिकों को धर्म और राजनीति के बीच संतुलन बनाने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए।

सांप्रदायिक राजनीति को नकारने और लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है।

5. निष्कर्ष

धर्म और राजनीति का संबंध सरल नहीं है। यह संबंध इतिहास, समाज, संविधान और जनता की मानसिकता पर निर्भर करता है। वर्तमान समय में धर्म और राजनीति के संतुलित समायोजन की आवश्यकता है, जहाँ धर्म का उपयोग सामाजिक नैतिकता के रूप में हो, न कि सत्ता प्राप्ति के उपकरण के रूप में।

भारत जैसे बहुधर्मी राष्ट्र में "सर्वधर्म समभाव" की भावना को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। यदि राजनीति को धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और नैतिकता पर आधारित किया जाए, तो एक बेहतर लोकतंत्र और समावेशी समाज का निर्माण संभव हो सकता है।


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